रूस ने तालिबान सरकार को आधिकारिक मान्यता देकर अफगानिस्तान में अमेरिका को करारा भू-राजनीतिक झटका दिया है। जानिए कैसे यह कदम मध्य एशिया की सत्ता संतुलन बदल रहा है और अमेरिका की रणनीतिक हार को प्रमाणित करता है।
Updated Date
“भू–राजनीति में कोई स्थायी मित्र नहीं होता, केवल स्थायी राष्ट्रीय हित होते हैं।“ — इस ऐतिहासिक वाक्य को रूस ने एक बार फिर चरितार्थ कर दिखाया है। अफग़ानिस्तान की राजनीतिक बिसात पर रूस ने वह चाल चली है, जिसने न केवल अमेरिका को असहज कर दिया है, बल्कि समूचे मध्य एशिया की शक्ति-संतुलन की धुरी को भी डगमगाने पर मजबूर कर दिया है।
हाल ही में रूस ने तालिबान को अफग़ानिस्तान की वैध सरकार के रूप में आधिकारिक मान्यता दे दी। यह निर्णय महज एक कूटनीतिक औपचारिकता नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन को प्रभावित करने वाला बड़ा कदम है। दुनिया की अधिकांश ताक़तें जहां अब तक तालिबान से औपचारिक दूरी बनाए रखे हुए थीं, वहीं रूस ने बाज़ी अपने हाथ में लेने का प्रयास किया है।
इतिहास की विडंबना
जिस तालिबान को कभी अमेरिका ने सोवियत समर्थित सरकार के विरुद्ध खड़ा किया था, आज उसी तालिबान को रूस ने गले लगाकर इतिहास का ताना-बाना उलझा दिया है।
1979 में सोवियत अफग़ानिस्तान में उतरा था। अमेरिका ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI के माध्यम से मुजाहिदीनों को हथियार, प्रशिक्षण और पैसे दिए। इसी लड़ाई की कोख से तालिबान और अल-कायदा जैसे संगठन पैदा हुए।
9/11 के बाद वही तालिबान, अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन बना और 20 वर्षों तक अमेरिका ने अफ़ग़ान धरती पर युद्ध लड़कर अपनी ताक़त झोंक दी। 2021 में अमेरिकी सेनाओं की शर्मनाक वापसी और तालिबान की सत्ता में वापसी ने अमेरिका की वैश्विक साख पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए।
रूस की कूटनीतिक चाल
तालिबान को मान्यता देकर पुतिन ने तीन बड़ी कूटनीतिक उपलब्धियाँ साधने का प्रयास किया है:
भारत की जटिल स्थिति
भारत ने तालिबान को अब तक वैध सरकार नहीं माना है। नई दिल्ली स्थित अफग़ान दूतावास पर अब भी पूर्व गणराज्य का झंडा लहरा रहा है। भारत को डर है कि तालिबान-प्रभावित अफग़ानिस्तान में चीन–पाकिस्तान गठजोड़ मजबूत होगा और इससे कश्मीर सहित पूरे क्षेत्रीय सुरक्षा समीकरण पर असर पड़ेगा।
SAARC में अफग़ानिस्तान की भूमिका भी अब अनिश्चित है। भारत-अफग़ान व्यापार और निवेश पर पहले से ही ग्रहण लगा हुआ है। ऐसे में रूस की पहल से भारत की अफग़ान नीति को पुर्नमूल्यांकन करना पड़ेगा।
वैश्विक प्रतिक्रिया और आगे की बिसात
अब सवाल है कि क्या चीन, पाकिस्तान और ईरान भी रूस के नक्शे-कदम पर चलेंगे? क्या अफग़ानिस्तान को UN में फिर से सदस्यता दी जाएगी? और क्या अमेरिका इस पर चुप्पी साधे रखेगा या किसी नई रणनीति से पलटवार करेगा?
संभावनाएँ यह भी हैं कि अमेरिका मानवीय सहायता पर रोक, अंतरराष्ट्रीय फंडिंग ब्लॉकेज या फिर राजनयिक दवाब का सहारा ले। परंतु जिस तरह अमेरिका की अफ़ग़ान नीति बीते दो दशकों से हताश और विफल रही है, उस स्थिति में रूस की यह चाल वाशिंगटन के लिए कठिन चुनौती है।
निष्कर्ष
अफग़ानिस्तान आज भी महज़ एक देश नहीं, बल्कि वैश्विक भू–राजनीति का रणनीतिक अखाड़ा है। पुतिन ने शतरंज की बिसात पर चाल चल दी है।
अब अमेरिका किस चाल से अपनी ‘शहमात’ बचाएगा — यही इस समय की सबसे बड़ी भू–राजनीतिक जिज्ञासा है।
जहां एक ओर विश्व जनमत तालिबान की मानवाधिकार नीतियों को लेकर सशंकित है, वहीं रूस ने व्यावहारिक हितों को सर्वोपरि रखते हुए अमेरिका को उसके ही मैदान में मात दी है।
भविष्य तय करेगा कि ये दांव स्थायी कूटनीतिक उपलब्धि बनेगा या अफग़ानिस्तान एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय साजिशों का अखाड़ा बन जाएगा।
लेखक: राज
दिनांक: 05.07.25