भारत और पाकिस्तान के बीच जल विवाद नया नहीं है, लेकिन पाकिस्तान की लगातार आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली नीतियों के चलते भारत को अब अपनी नीति पर पुनर्विचार करना होगा। सिंधु जल संधि एकतरफा लाभ देने वाली साबित हो रही है। ऐसे में अब यह सवाल जरूरी हो गया है—क्या पाकिस्तान को एक बूंद पानी देना भी उचित है?
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भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में हुए सिंधु जल संधि को अक्सर ‘सद्भावना का प्रतीक’ कहा जाता है। इस संधि के तहत भारत ने पाकिस्तान को सिंधु, झेलम और चिनाब नदियों के जल का 80% हिस्सा उपयोग करने की अनुमति दी थी, जबकि भारत केवल व्यास, सतलुज और रावी नदियों के जल का उपयोग कर सकता है। यह संधि विश्व की सबसे उदार जल संधियों में से एक मानी जाती है। परंतु, पिछले कुछ दशकों में पाकिस्तान की नीति, आतंकवाद को पनाह देना, और भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देना, इस सद्भावना को एकतरफा बना चुके हैं।
भारत हर साल अरबों क्यूबिक मीटर पानी पाकिस्तान को देता है, जो वहां खेती, बिजली उत्पादन और रोज़मर्रा के उपयोग के लिए इस्तेमाल होता है। लेकिन क्या ऐसा देश जो हमारे सैनिकों की हत्या करता है, आतंकी संगठनों को संरक्षण देता है और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के विरुद्ध खड़ा रहता है, उसे इतनी महत्वपूर्ण संसाधन दिया जाना चाहिए?
पुलवामा हमले के बाद भारत में यह मांग तेज़ हुई कि सिंधु जल संधि को रद्द किया जाए या फिर संशोधित किया जाए। यह मांग केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और रणनीतिक दृष्टि से भी जरूरी है। जिस पानी से पाकिस्तान की कृषि जीवित है, उसी पानी का उपयोग कर वह भारत के खिलाफ आतंकियों को पालता है। क्या यह नीति आत्मघाती नहीं?
पाकिस्तान के पास खुद के संसाधनों की भारी कमी है। उसकी आर्थिक स्थिति चरमरा चुकी है। जल संकट से जूझता यह देश अगर भारत से मिलने वाले जल पर निर्भर है, तो यह भारत के लिए एक रणनीतिक हथियार भी हो सकता है। अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत भारत को अपनी नदियों के जल पर पहला अधिकार है। भारत यदि चाहे, तो इन नदियों पर डैम और कैनाल प्रोजेक्ट्स बनाकर उस पानी को अपने उपयोग में ला सकता है।
हाल ही में भारत सरकार ने कुछ जल परियोजनाओं पर काम तेज़ किया है, जैसे कि रावी नदी पर शाहपुर कंडी प्रोजेक्ट और व्यास नदी पर उझ प्रोजेक्ट। इन परियोजनाओं से पाकिस्तान को जाने वाले पानी को भारत के राज्यों में मोड़ा जा सकता है—खासकर पंजाब, जम्मू-कश्मीर और हरियाणा जैसे जल संकट झेल रहे राज्यों को इसका लाभ मिलेगा।
इस मुद्दे पर विपक्ष और मानवाधिकार समूहों का यह तर्क कि पानी रोका जाना ‘अमानवीय’ होगा, राष्ट्रीय हितों के सामने कमजोर पड़ता है। जब एक देश आपके नागरिकों और सैनिकों की जान ले रहा हो, तो उसके साथ ‘मानवता’ निभाना मूर्खता से कम नहीं।
हमें यह समझना होगा कि यह सिर्फ एक जल विवाद नहीं, बल्कि एक रणनीतिक मसला है। पाकिस्तान को मिलने वाला पानी उसके लिए ऑक्सीजन की तरह है। अगर भारत इस ऑक्सीजन को नियंत्रित कर लेता है, तो पाकिस्तान की आतंकवादी गतिविधियों पर भी प्रभाव पड़ सकता है। और यह कोई युद्ध नहीं, बल्कि अपनी सम्प्रभुता के तहत लिया गया कदम होगा।
आज जब भारत वैश्विक मंचों पर एक निर्णायक शक्ति बनकर उभर रहा है, तब ऐसे नरम रवैये की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। ‘शांति’ की बात तभी होती है जब दोनों पक्षों में समानता हो। जब एक पक्ष लगातार वार करता रहे और दूसरा केवल ‘धैर्य’ दिखाता रहे, तो वह नीतिगत कमजोरी कहलाती है।
इसलिए अब वक्त आ गया है कि भारत सरकार एक स्पष्ट नीति बनाए—या तो पाकिस्तान अपने आतंकी ढांचे को पूरी तरह खत्म करे, या फिर उसे एक बूंद पानी भी न दिया जाए। जल को हथियार बनाना गलत नहीं, जब इसका उपयोग देश की रक्षा के लिए किया जाए।
अंत में यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘पाकिस्तान को एक बूंद पानी भी नहीं देना चाहिए’ अब केवल एक नारा नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय रणनीति होनी चाहिए।