AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने केंद्र सरकार से मांग की है कि जाति जनगणना को राष्ट्रीय जनगणना का हिस्सा बनाया जाए। उन्होंने कहा कि जब तक सभी जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का आंकलन नहीं होगा, तब तक सच्चे सामाजिक न्याय की नींव नहीं रखी जा सकती। ओवैसी ने इसे संविधान के मूल उद्देश्यों की पूर्ति से जोड़ा।
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असदुद्दीन ओवैसी, जो अपने बेबाक बयानों और अल्पसंख्यक अधिकारों की पैरवी के लिए जाने जाते हैं, ने अब जाति जनगणना को लेकर केंद्र सरकार को सीधा संदेश दिया है। उन्होंने कहा कि यदि सभी वर्गों की वास्तविक सामाजिक और आर्थिक स्थिति को समझना है, तो जाति आधारित जनगणना को राष्ट्रीय जनगणना में अनिवार्य रूप से शामिल किया जाना चाहिए।
हैदराबाद में आयोजित एक जनसभा में बोलते हुए ओवैसी ने कहा, “आप जब तक सामाजिक संरचना को नहीं जानेंगे, तब तक नीतियां बनाना सिर्फ कागज़ी कवायद बनकर रह जाएगी। पिछड़े वर्गों, दलितों और अल्पसंख्यकों को उनका हक तभी मिल सकता है जब सरकार के पास उनके सामाजिक और आर्थिक हालात की सही जानकारी हो।”
ओवैसी का मानना है कि आरक्षण, योजनाएं और सामाजिक कल्याण तब तक अधूरी रहेंगी जब तक नीति निर्माण के पीछे ठोस डेटा नहीं होगा। उन्होंने कहा कि जातिगत आधार पर आंकड़े नहीं जुटाना एक राजनीतिक साजिश है जिससे वंचित वर्गों को हाशिए पर रखा जा सके। उन्होंने तंज कसते हुए कहा, “सरकार को सब पता है, लेकिन वो जानबूझकर आंखें बंद कर रही है।”
ओवैसी ने विपक्षी दलों से भी अपील की कि वे जाति जनगणना के मुद्दे पर केवल राजनीतिक बयानबाज़ी न करें, बल्कि संसद में इसके लिए दबाव बनाएं। उन्होंने यह भी कहा कि जातिगत आंकड़ों का खुलासा करने से न केवल सामाजिक संतुलन बेहतर होगा, बल्कि यह भी साफ होगा कि किन समुदायों को विकास योजनाओं का लाभ मिल रहा है और किन्हें नहीं।
AIMIM प्रमुख ने यह भी कहा कि अल्पसंख्यकों को लेकर सरकार की नीतियों में पारदर्शिता की कमी है। उन्होंने कहा, “जाति जनगणना से यह भी पता चलेगा कि मुस्लिम, दलित और पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों, शिक्षा और योजनाओं में कितनी भागीदारी मिल रही है।”
जाति जनगणना को लेकर भारतीय राजनीति में काफी समय से चर्चा है। कुछ राज्यों ने स्वतंत्र रूप से अपने स्तर पर जातिगत जनगणना कराई है, लेकिन केंद्र सरकार ने अब तक इसे राष्ट्रीय जनगणना का हिस्सा नहीं बनाया। ओवैसी का यह बयान ऐसे समय में आया है जब 2024 के आम चुनावों के लिए राजनीतिक दल सामाजिक न्याय के एजेंडे को लेकर काफी सक्रिय हो गए हैं।
उन्होंने यह भी जोड़ा कि यदि सरकार वाकई समावेशी विकास चाहती है, तो उसे सबसे पहले समाज की हकीकत को समझना होगा – और वह तभी संभव है जब हर जाति और समुदाय का दस्तावेजीकरण किया जाए।